आदि शंकराचार्य का एकात्म बोध यदि सत्यं भवेद्विश्वं सुषुप्तावुपलभ्यताम्। यन्नोपभ्यते किंचितदतोऽसत्त्सवप्नवन्मृषा।। विवेकचूडामणि “यदि विश्व सत्य होता तो सुषुप्तिकाल में भी गोचर होता। पंरतु, क्योंकि वह बिल्कुल गोचर नहीं है,उसे स्वप्न की भाँति असत्य और मिथ्या होना चाहिए” आदि शंकराचार्य भारत के चमकते सूर्य हैं। अपने छोटे-से जीवन काल में जीव-जगत की सत्ता का अन्वेषण करने वाले अद्भुत दार्शनिक और धर्मप्रवर्तक। नवीं सदी से इस इक्कीसवीं सदी के बीच शंकर के वेदांतिक उद्घोष अद्वैत दर्शन का सार हैं। धर्म की वैज्ञानिक खोज करने का श्रेय उनके अद्वैत दर्शन को जाता है। जैसा जगत या संसार दिखाई देता है उसके मूल में जो अंतिम सत्य है वही ब्रहम है। यह कोई एक शब्द नहीं बल्कि शब्दों की अंतिम गहराई है जो इस सब कुछ का कारण है। जब आँखे रंग देखती हैं तो इसकी एक प्रक्रिया है- जब प्रकाश किसी वस्तु से टकराता है तो वह वस्तु प्रकाश का कुछ हिस्सा अपने में अवशोषित कर लेता है और जो हिस्सा बाहर(परावर्तित) लौटा दिया जाता है उसकी तरंगदैर्ध्य के अनुसार रंग दिखाई देता है। यानि नीला प्रतीत होने वाला आकाश भी नीला नहीं। शंकर ने इसे ही मिथ्या कहा। जो दिखाई देता है उसके पीछे जो अदृश्य है, वही एकमात्र सार्वभौमिक सत्य है। और विज्ञान इस सत्य को व्यवस्थित रूप से प्रकट करने का विश्वसनीय साधन। प्राचीन काल में धर्म का स्वरुप आज से बिल्कुल अलग था। ध्यान से उपजा धर्म जीवन के रहस्यों को जानने की विधा थी। इस विधा को धारण करने के लिए कुछ अपरिहार्य नियमों को पालन करना ज़रूरी था। जो गुरु के सानिध्य में रहकर उपलब्ध हो जाता था। साधन और साध्य एक ही हैं। जीव, जीवन और नियंता एक ही हैं यही वेदों का सार है। शंकर ने सही अर्थों में हिन्दू धर्म को पुनर्स्थापित किया। हिन्दू धर्म की तरलता और समरसता ने ही उसे शीर्ष पर बनाए रखा है। और जिस धर्म के मूलभूल सिद्धांतो की समय और परिस्थितियों के अनुसार सर्वव्यापक व्याख्या की जाती है, वही उसके जीवंत होने का प्रमाण हो जाते हैं। शंकर के एकात्म दर्शन की वैज्ञानिक व्याख्या आज की परिस्थितियों में और आवश्यक है। विज्ञान जिसे बोसोन कण कहता है और कहता है कि इस सारे ब्रह्मांड के बनने में एक डार्क एनर्जी है तो यही बात शंकर ने अपने सूत्रों में कही। यही वह प्रकाश है, ज्योति है जिसमें सब एक हो जाते हैं। फिर प्रश्न उठता है कि यह ऐसा क्यों है तो शंकर इसे ही अज्ञान कहते हैं। यानि जब तक इस अज्ञान का पर्दा बीच(मेरे और दूसरी वस्तु) में है तब तक हर वस्तु की अलग सत्ता और अनेक रूप अनुभव होते हैं। लेकिन जैसे ही ये पर्दा हटता है, देखने वाला और दिखने वाले (दृश्य) के बीच भेद मिट जाता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि एक नदी बहती है तो उसके स्रोत को जानने के क्रम में पता चलता है कि यह अपना अस्तित्व दूसरी नदी में खोती हुई अंत में समुद्र में मिल जाती है। यह समुद्र भी अपनी सीमा पृथ्वी की अपार जलराशि में मिला देता है जिसके अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम हैं। यह उसके बाहरी रूप की खोज है। अब इस जल के की बूँद का आंतरिक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि वह हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन के एक परमाणु से मिलकर बनी है (निश्चित अनुपात) जो इस रूप में तब तक रहता है जब तक कि उस पर कोई भौतिक परिवर्तन आरोपित न किया जाए। यानि यह पदार्थ के अस्तित्व का सार्वभौमिक सत्य है जो अक्षुण्ण रहता है। सभी पदार्थों के मूल में एक ऊर्जा है जिसे विज्ञान डार्क मैटर से बना है ऐसा मानता है, लेकिन उस अपदार्थ को जानने के लिए उपकरण खोजा जाना अभी शेष है। जबकि भारतीय मनीषा ने इसके लिए ध्यान का सूत्र दिया है। शंकर का एकात्म बोध यही शाश्वत ऊर्जा है जो एक से अनेकानेक रूपों में वयक्त हुआ। रोचक बात यह है कि इस ज्ञान की प्रक्रिया में जाननेवाला वही नदी है जो हर कदम पर अपने रूप(बूँद से सागर) को बदलता हुआ पाता है और फिर भी नहीं बदलता। आज की भयावह परिस्थितियों शंकर के सूत्र शीतल करने में सहायक हैं। जैसे पृथ्वी के केंद्र में ऊर्जा का संकेन्द्रण है पर वह शांत और शीतल है। इसके ठीक विपरीत सतह जो सारे वातावरण के सम्मुख है, अनावृत हुआ है सबसे ज़्यादा हलचलों को अनुभव करता है। इस सतह से कुछ टकराता है और कुछ प्रतिक्रिया होती है। यह क्रम अनवरत जारी रहता है। ठीक ऐसे ही मन जो बाहर अनावृत है, सुख-दुख का अनुभव करता है यदि मन की सतह को केंद्र की तरफ मोड़ दिया जाए तो यह एकात्म भाव सतह की हलचलों के प्रति वैसी प्रतिक्रिया/प्रतिकर्म नहीं करता है जैसे अपने को सतह मान लेने पर होता है। जैसे-जैसे केंद्र की ओर जाते हैं शक्ति बढ़ती है और सतह की ओर जाने पर क्रियाशीलता। इसलिए इस अहम् को परम से जोड़ लेना ही अद्वैत का अर्थ समझ लेना है।

on

टिप्पणी करे